Tuesday 29 December 2009

अच्छा है तुम इस दुनिया में नहीं हो

पिछले दिनों मुझे एक केस के सिलसिले में घर जाना पड़ा.ये केस में फ़ोन का था जो की आज से ६ महीने पहले छीना गया था ,और उसकी पहली सुनवाई ६ महीने के बाद हो रही थी .उस दिन अदालत में काफी देर इंतजार करना पड़ा तो मैं सोच रहा था की हमारी न्यायिक व्यवस्था कितनी ढीली ढाली है .की एक छोटे से केस में ही कितना समय लग रहा है.
            पर जो मैं सोच रहा था वो शायद बहुत ही गलत सोच रहा था ,उसी दौरान रुचिका केस में राठौर को सजा मिली ,सजा भी क्या मिली सिर्फ ६ महीने. एक लड़की की जान के लिए ६ महीने की सजा और सजा मिलने के १० मिनट बाद ही जमानत .और भी जितने पहलु मैंने इस केस में अभी तक देखे सुने हैं ,उन से तो लगता है की मैं तो सिर्फ ६ महीने से ही परेशान हुआ   और  रुचिका के घरवाले  जो 19 साल  से केस लड़  रहे  थे  .एक दबंग  अफसर के डर में अब तक जी रहे थे उन पर क्या गुजरी  होगी .इसका हिसाब लगाना ना मेरे बस में है ना ही किसी और के.रुचिका ने तो अपनी ज़िन्दगी को खत्म ही कर लिया था ,पर उसके भाई आशु पर तो जो भी बिता वो हमारी व्यवस्था का चेहरा सा नज़र आता है .की हम किस समाज में जीतें हैं .ऐसी चीज़ें हमने फिल्मों में बहुत देखी हैं .पर इतना भयानक वर्णन शायद ही सुना हो. 
             राठौर जो की एक राक्षस की तरह हस्ते हुए अदालत से निकला था ,ने ना केवल अपने विभाग  बल्कि नेताओं तक पर इतना असर किया की उस पर कहीं से भी आंच नहीं आई.वो पदोनती पर पदोनती लेता रहा ,और गिरोह्त्रा परिवार पर अपने जुल्म जरी रखे रहा .हर रोज अब कोई ना कोई नेता ,या फिर पुलिस विभाग से नए नए खुलासे हो रहे पर शायद राठौर तो आराम से अपने घर बैठ कर ये तमासा देख रहा होगा.
             एक बात और की वैसे तो रुचिका ने ज़िन्दगी से हार मान कर आत्महत्या तो की ,लेकिन रुचिका ने शायद सही ही किया .इस ६ महीने की सजा के ढोंग को देख कर वो कर भी क्या पाती ,एक और ज़िन्दगी जीते जी मर जाती .अच्छा है रुचिका आज जिंदा नहीं है ,नहीं तो उसका मन राठौर,तिवारी और उन बाबाओं को देख कर रो रहा होता जो कितनी ही लड़कियों को अपनी हवास का शिकार बनाते हैं और साफ़ साफ़ बच कर निकल जातें हैं .
                                                              

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