Tuesday 18 November 2008

चले जा रहा हूँ

चले जा रहा हूँ
कहीं अंत नही हैं
चला जा रहा हूँ अनंत में
कभी रुक सकूँ गा लगता नही है
कभी बैठ कर कुछ सौचुन्गा
लगता नही है
चले जा रहा हूँ


रुकना चाहता हूँ
पर रुकने का फायदा
रुकने का फायदा नज़र नही आता
नज़र है पुरी दुनिया की मेरे पर
पर , पर लगा कर उड़ जन चाहता हूँ
चाहता हूँ की अनंत सागर में तैरता ही चला जाऊँ
चले जा रहा हूँ
चलते ही जाना चाहता हूँ

1 comment:

Vinay said...

सुन्दर काव्य सृजन!