लिखती थी तन्हाई में , आंसुओं से अपना गम
कोई नहीं था महफिल में , जो बन जाये उसका हमदम
महफिल से वो घिरी होती थी
फिर भी तन्हाई संग होती थी
उसकी महफिल थी तन्हाई में
महफिल में वो तन्हा होती थी
महफिल में कहता था उसे दर्द,मुझे तन्हाई में ले चलो
आंसू भी कहते थे , सब्र कि इंतिहा हुई ,अब हमें मत रोको
महफिल ने किया उसे महफिल से दूर
किया तन्हाई से दोस्ती करने को मजबूर
उसकी तन्हाई में साथ देने आया खुदा भी नहीं
जब मौत मांगी तो वो भी दूर चली गयी कहीं
आज उसका जीवन बिलकुल विराना है
फिर वो कहती है कि ,बाहर ने कभी तो आना है
आशा कि ज्योति ,तन्हाई भी न बुझा पाई
तन्हाई से सब डरते हैं , उसने तन्हाई से दोस्ती निबाही I
1 comment:
अरे यार वाह, तुमने बहुत ही अच्छा लिखा है..
गजब कर दिया...
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